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‘तमिलनाडु के राज्यपाल का फैसला असंवैधानिक और मनमाना’, सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला

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Posted On:Tuesday, April 8, 2025

तमिलनाडु की राजनीति और संवैधानिक व्यवस्था को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा और ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। यह फैसला राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा राज्य विधानसभा में पारित कई विधेयकों को मंजूरी देने से इनकार करने के खिलाफ दायर याचिका पर आया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि यदि राज्य विधानसभा द्वारा पुनर्विचार के बाद कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो राज्यपाल को उस विधेयक को मंजूरी देना अनिवार्य है।

विधेयकों को रोकना अवैध और मनमाना

सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि को स्पष्ट रूप से झटका देते हुए कहा कि उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 200 के प्रावधानों का उल्लंघन किया है। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजना पूरी तरह से "अवैध और मनमाना" था। यह फैसला न केवल तमिलनाडु बल्कि पूरे देश के संघीय ढांचे और संवैधानिक जिम्मेदारियों को लेकर बेहद अहम माना जा रहा है।

न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि संविधान में "पूर्ण वीटो" या "पॉकेट वीटो" जैसी किसी अवधारणा का कोई स्थान नहीं है। यदि कोई विधेयक राज्यपाल के सामने आता है, तो उन्हें संविधान में वर्णित उपायों के अनुसार कार्रवाई करनी चाहिए और उसे अनिश्चित काल तक लंबित नहीं रखा जा सकता।

अनुच्छेद 200 की व्याख्या

भारत के संविधान का अनुच्छेद 200 राज्यपाल को तीन विकल्प देता है:

  1. विधेयक को मंजूरी देना,

  2. उसे पुनर्विचार के लिए विधानसभा को लौटाना,

  3. या राष्ट्रपति के पास भेजना (केवल कुछ विशेष मामलों में)।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि विधेयक को विधानसभा ने पुनर्विचार कर फिर से पारित कर दिया है, तो राज्यपाल को अनिवार्य रूप से उसे मंजूरी देनी चाहिए।

समय सीमा का पालन आवश्यक

कोर्ट ने कहा कि भले ही संविधान में कोई निश्चित समय सीमा न दी गई हो, फिर भी संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति को उचित समय सीमा के भीतर कार्य करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा कि अदालतें उचित समय सीमा के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दे सकती हैं और यह न्यायिक अधिकार क्षेत्र का हिस्सा है।

विवाद की पृष्ठभूमि

यह मामला उस समय चर्चा में आया जब तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल द्वारा विधानसभा में पारित विधेयकों को मंजूरी देने में अत्यधिक विलंब को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सरकार ने दावा किया कि राज्यपाल का यह व्यवहार राज्य की विधायी प्रक्रिया को अवरुद्ध करने के समान है।

राज्य सरकार की याचिका में उल्लेख किया गया था कि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयकों को लंबित रखकर राज्य की कार्यपालिका को बाधित कर रहे हैं। विशेष रूप से, यह विवाद तब और गहरा गया जब इनमें से कई विधेयक तमिलनाडु के विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से संबंधित थे, जिससे राज्य की उच्च शिक्षा व्यवस्था प्रभावित हो रही थी।

क्या कहते हैं संवैधानिक विशेषज्ञ?

संवैधानिक विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संघीय व्यवस्था की मजबूती और राज्यपाल की भूमिका को स्पष्ट करने में मील का पत्थर है। वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा, "यह फैसला न केवल तमिलनाडु बल्कि अन्य राज्यों के लिए भी मार्गदर्शक सिद्ध होगा, जहां राज्यपाल राजनीतिक कारणों से विधेयकों को रोकते हैं।"

दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ. रामकुमार के अनुसार, "यह फैसला न्यायपालिका की सक्रियता का उदाहरण है, जहां संविधान की भावना की रक्षा करते हुए एक संवैधानिक संकट का समाधान निकाला गया।"

राजनीतिक प्रतिक्रिया

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद तमिलनाडु की राजनीति में हलचल मच गई है। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि यह लोकतंत्र की जीत है। उन्होंने कहा, "राज्यपाल द्वारा हमारे विधेयकों को जानबूझकर रोका जा रहा था, जिससे हमारी सरकार के कार्य बाधित हो रहे थे। सुप्रीम कोर्ट ने हमें न्याय दिया है।"

दूसरी ओर, भाजपा और केंद्र सरकार की ओर से अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह मामला अन्य राज्यों में भी राज्यपालों की भूमिका को लेकर नई बहस को जन्म देगा।

सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का व्यापक असर

इस फैसले का प्रभाव केवल तमिलनाडु तक सीमित नहीं रहेगा। देश के कई राज्यों में ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है जहां राज्यपाल और निर्वाचित सरकारों के बीच टकराव की स्थिति बनी है। जैसे:

  • महाराष्ट्र में विधायकों की अयोग्यता का मामला,

  • पश्चिम बंगाल में कानून व्यवस्था को लेकर मतभेद,

  • केरल में यूनिवर्सिटी नियुक्तियों को लेकर टकराव।

अब इस फैसले के बाद, राज्यपालों को संविधान के दायरे में रहकर ही कार्य करना होगा और विधेयकों को जानबूझकर रोकने की प्रवृत्ति पर लगाम लगेगी।

निष्कर्ष

तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल संविधान की आत्मा की रक्षा करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि निर्वाचित सरकारों के कार्य में किसी भी प्रकार की बाधा न आए। यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 200 की व्याख्या को स्पष्ट करता है और राज्यपालों की भूमिका को सीमित करता है।

वर्तमान परिदृश्य में, जब लोकतंत्र और संघवाद पर बार-बार सवाल उठते हैं, यह फैसला एक मजबूत संदेश है कि संविधान सर्वोपरि है और उसकी मर्यादा को कोई भी लांघ नहीं सकता – चाहे वह किसी भी संवैधानिक पद पर क्यों न हो।

यह न्यायपालिका की सशक्त भूमिका और संविधान की सर्वोच्चता की पुनः स्थापना का प्रतीक है, जिससे भविष्य में राज्यों और राज्यपालों के बीच बेहतर तालमेल की संभावना बढ़ती है।


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